चुनावी उथल-पुथल से बिहार खिल उठा है

— डॉ. मयंक कुमार राय(असिस्टेंट प्रोफेसर,वाणिज्य संकाय गोपाल नारायण सिंह विश्वविद्यालय, सासाराम ,बिहार) “जिंदाबाद-जिंदाबाद” की गूंज आज भी गांव की गलियों, चौक-चौराहों और दीवारों से टकराती है। गांव का बेटा, शहर का बेटा, आपका अपना हमदर्द — हर कोई चुनावी मैदान में उतर चुका है। बूढ़ी अम्मा घर के कोने वाली खिड़की से पल्लू दांतों में दबाकर देख रही हैं — “इस बार तो लग रहा है, विकास जरूर होगा।” उन आंखों में समय की झुर्रियां हैं, पर उम्मीद आज भी ताज़ा है। बिहार का चुनावी परिदृश्य हमेशा से रोचक और भावनाओं से भरा रहा है। यहां राजनीति सिर्फ विचारधारा की नहीं, बल्कि रिश्तों, भावनाओं और उम्मीदों की भी होती है। कार्यकर्ता अपनी निष्ठा, समय और जीवन तक को न्यौछावर कर देते हैं ताकि उनके ‘नेता जी’ सत्ता तक पहुंचें — परंतु पाँच वर्ष बाद वही विकास फिर गलियों और चौराहों में जवान होकर यह सवाल पूछता है कि “अबकी बार क्या हुआ विकास का?” सिर्फ बीस वर्ष पहले का बिहार याद कीजिए — जब सड़कों पर अंधेरा था, प्रशासन लाचार, और समाज जात-पात की दीवारों में बंटा हुआ था। हर चुनाव में विकास की नहीं, बल्कि जाति और बिरादरी की गिनती होती थी। किसी को यह गर्व था कि उसका नेता उसकी जात का है, चाहे वह जनता के लिए कुछ करे या न करे। परिवारवाद और जातिवाद ने बिहार की सामाजिक संरचना को तोड़कर रख दिया था। हर व्यक्ति अपने छोटे से घेरे में सिमट गया था — गांवों की चौपालों से लेकर शहरों के दफ्तरों तक, राजनीति “हम” और “वे” के बीच बंट चुकी थी। ऐसे दौर में एक नेतृत्व उभरा — जिसने बिहार की राजनीति को रार और तकरार की भाषा से निकालकर विकास और विश्वास की भाषा दी।मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने बिहार को सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और कानून-व्यवस्था के क्षेत्र में नई पहचान दी। उन्होंने यह साबित किया कि अगर इच्छा शक्ति हो तो सबसे पिछड़ा राज्य भी प्रगति की मिसाल बन सकता है। आज बिहार के गांवों में सड़कों पर दूधिया बल्ब रोशनी लिए खिलखिलाता है, बच्चों के हाथों में किताबें अठखेलियां करती हैं, और युवाओं की आंखों में रोजगार के सपने विकसित बिहार को लेकर संकल्पित हैं। पहले जहां वोट जाति के नाम पर मांगे जाते थे, वहीं अब बहस “विकास” पर होती है। जनता अब पूछत बा — “सड़क बनी की नाहीं?”, “स्कूल खुली की नाहीं? कहो कुछ होइबो करि” मेरे अपने क्षेत्रीय भ्रमण के अनुभव बताते हैं कि अब बिहार की जनता नेताओं की आपसी तकरार से ऊब चुकी है। जनता अब ठोस परिणाम चाहती है — विकास, शिक्षा, रोजगार और सुशासन। अब लोग यह समझ चुके हैं कि “समाज का विकास ही व्यक्ति का विकास है।” बिहार की नई पीढ़ी जात-पात की संकीर्ण सोच से ऊपर उठ रही है। लोग अब परिवारवाद नहीं, बल्कि प्रदर्शनवाद देखना चाहते हैं — यानी कौन कितना काम करता है, कौन कितनी ईमानदारी से जनता के लिए खड़ा है। बदलते बिहार की यह कहानी केवल आंकड़ों की नहीं, बल्कि मानसिकता के परिवर्तन की भी कहानी है। राजनीतिक नारे अब भी गूंजते हैं, पर उनमें नई ऊर्जा है — विकास की ऊर्जा।हां, यह सही है कि अभी भी कुछ बोगियां विकास की पटरी से नीचे हैं, लेकिन दिशा सही है। अब वह समय दूर नहीं जब बिहार के हर वर्ग, हर समुदाय, हर गांव और हर व्यक्ति के जीवन में विकास की यह रेलगाड़ी धड़धड़ाती हुई पहुंचेगी। मैं, एक सामान्य नागरिक के रूप में, बिहार के इस नव-निर्माण के युग में मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार को समाज के प्रतिनिधि के रूप में हार्दिक धन्यवाद और आभार ज्ञापित करता हूं — क्योंकि उन्होंने यह विश्वास जगाया कि बिहार अब सिर्फ चुनावी रार और तकरार का नहीं, बल्कि विकास और सुधार का प्रतीक बन चुका है।